कुछ अधूरी बातें | Prachi Patil | prachipatilblogs
"तुमसे फिर मिलना होगा, ये कभी नहीं सोचती थी और कोशिश भी रहती थी कि भविष्य में तुमसे मेरा सामना कभी नहीं हो।" "अच्छा...! हाँ, शायद शिक़ायत का भी मौका मैंने ही दिया था।" "वो तो पता नहीं, लेकिन सब ख़त्म कर के जब मैं शुरुआत कर रही थी, सारी चीजें पीछे छोड़ रही थी... तो तुमने जो किताबें छोड़ दी थी हमारे घर में, उसने मुझे बहुत रुलाया था, इसलिए ऐसा फैसला लिया था।" "पर उन किताबों में तो ऐसा कुछ भी नहीं था जो तुम्हें तकलीफ दे..." "हाँ लेकिन तुमने हर किताब के किसी आखरी या पहले पन्ने पर ऐसी लाइन लिखी थी जो मुझसे जुड़ी थी, कोई लाइन याद है आज?" "नहीं..." "ये लो, वही पन्ने हैं... मैंने फाड़ कर काफी दिन तक अपने पास रखा, और हर साल एक किताब जला देती थी। आज जब मिलना तय हुआ तो संयोग ऐसा था कि आखरी किताब आज ही जलायी। तुम ये पन्ने रख लो।" "क्या करूंगा अब इनका, तुम साथ थी तो लिख सका था, अब क्या करना इनका..." "इन्हें अब तुम्हें जलाना होगा... हर पन्ना जलाना, हर साल... क्या पता फिर किसी दिन, जब इनमें से कोई आखरी पन्ने को जला रहे हो...